प्रेरक कहानियां
दिव्यांग लोगों के लिए बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच आज भी एक समस्या क्यों बनी हुई है?
विकलांग लोगों (People with Disabilities – PwD) के लिए एक्सेसिबिलिटी यानी पहुंच आज भी एक चुनौती बनी हुई है, क्योंकि आज भी उनके लिए पब्लिक और प्राइवेट जगहों का इस्तेमाल करना मुश्किल बना हुआ है. जिसमें टॉयलेट यानी शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा भी शामिल है
नई दिल्ली: 2011 की जनगणना के मुताबिक, लगभग 26.8 मिलियन (2.68 करोड़) लोग, या कहें कि भारत की आबादी का करीब 2.2 प्रतिशत हिस्सा किसी न किसी तरह की शारीरिक या मानसिक विकलांगता के साथ रह रहा है. यह आंकड़ा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये ऑस्ट्रेलिया की पूरी जनसंख्या से भी ज्यादा है. लेकिन इसके बावजूद भारत के शहरों का कितना इंफ्रास्ट्रक्चर दिव्यांग लोगों (Disabled) की जरूरतों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाता है? किस हद तक हमारे ट्रांसपोर्ट नेटवर्क, कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी इकोसिस्टम और इंफ्रास्ट्रक्चर दिव्यांग लोगों (People with Disabilities – PwDs) के लिए इस्तेमाल में आसान बनाए गए हैं? इसके अलावा, क्या हमारे व्यवहार और सोच में कोई बदलाव आया है कि हम उनकी विकलांगताओं को देखने के बजाय उनके हुनर को देख पाएं?
NDTV ने दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज में फिजियोलॉजी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर डॉ. सतेंद्र सिंह (Dr Satendra Singh) से बात की, जो नौ साल की उम्र से पोलियोमाइलाइटिस (Poliomyelitis) यानी पोलियो से पीड़ित हैं. डॉ. सिंह दिव्यांग लोगों (PwDs) के लिए, खास तौर पर स्वास्थ्य देखभाल (Healthcare) में समानता के अधिकार के समर्थक रहे हैं. डॉ. सिंह ने सवाल किया कि क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह दिव्यांगों को भी शिक्षा और रोजगार का मौलिक अधिकार नहीं है?
हमें विशेष रूप से सक्षम (Specially-abled) कहा जाता है, हमें दिव्यांग (Differently-abled) कहा जाता है. हमें दिव्य क्षमताओं, अलौकिक क्षमताओं वाला भी कहा जाता है. लेकिन उन गैर-दिव्यांग लोगों से मेरा एक बहुत साधारण सा सवाल यह है कि क्या शिक्षा और रोजगार पाने का मेरा अधिकार एक विशेष आवश्यकता (Special need) है? क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे मैं इन सभी बाधाओं को जीत सकूं जो मैंने नहीं बनाई हैं? मैं केवल शारीरिक रूप से कमजोर हूं; यह समाज ही है जो रैंप का प्रावधान न करके बाधाएं पैदा करता है.
भारत की पहली व्हीलचेयर मॉडल विराली मोदी ने भी दृढ़ता से इस बात की वकालत की है कि एक समावेशी और सुरक्षित समाज बनाने की जिम्मेदारी हर किसी की होनी चाहिए, न कि केवल उन लोगों की जो दिव्यांग हैं. विराली मोदी पिछले महीने खबरों में छाई हुई थीं. लेकिन अपनी शादी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि विकलांगों के लिए समान अधिकारों की वकालत करने वाली व्हीलचेयर पर बैठी इस कार्यकर्ता को विवाह रजिस्ट्रार के कार्यालय तक पहुंचने के लिए दूसरी मंजिल तक सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं. क्योंकि उस बिल्डिंग में कोई लिफ्ट ही नहीं थी.
भारत में ऐसी हजारों विराली मोदी हैं जो विकलांगों को ध्यान में रखकर डिजाइन किए गए इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी की वजह से अपने रोजमर्रा के जीवन में कई चुनौतियों का सामना करती हैं.
अपनी आपबीती बताते हुए विराली मोदी ने कहा,
अगर मैं कहीं भी जाना चाहती हूं, तो वहां रैंप की कोई सुविधा मौजूद नहीं होती है, और जिन जगहों पर रैंप बनाए भी गए हैं, तो वे बहुत ही खराब स्थिति में हैं. मैं कहूंगी कि प्लानिंग में बहुत सारी गड़बड़ियां हैं. ज्यादातर लोगों के लिए, ‘एक्सेसिबिलिटी’ इतनी अहम बात नहीं है, लेकिन यह मेरी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है. मुझे उस दुनिया के साथ तालमेल बिठाना होगा जो उन लोगों के हिसाब से बनाई गई है जो विकलांग नहीं हैं न कि उस दुनिया से जो हमारे हिसाब से एडजस्ट हो रही है.
विकलांग लोगों को हर दिन जिन कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उनके अलावा एक्सेसिबिलिटी यानी सुलभता एक बड़ी रुकावट बनी हुई है. डॉ. सतेंद्र सिंह ने अपना अनुभव बताते हुए कहा,
जब आप अपने कमरे या अपने घर से बाहर निकलते हैं, तो जो चीज चारों तरफ नजर आती है वो खास तौर से शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों के लिए एक्सेसिबिलिटी की कमी है. यह मेरा खुद का अनुभव रहा है, क्योंकि मैं भारत भर में बहुत सारे मेडिकल कॉलेजों, संस्थानों और अस्पतालों का दौरा करता रहता हूं. ये सारी वो जगहें हैं जो सभी लोगों की पहुंच में होनी चाहिए, लेकिन बहुत दुख की बात है कि ऐसा नहीं है. यहां तक कि पोस्ट ऑफिस, बैंक, क्रिकेट स्टेडियम या सिनेमा हॉल जैसी आवश्यक सेवाओं तक भी दिव्यांगजनों की पहुंच न होना उनके लिए एक बड़ी समस्या है.
डॉ. सतेंद्र सिंह ने कहा कि विकलांगता केवल लोकोमोटिव (Locomotives) यानी शारीरिक तौर पर विकलांगता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि और भी तरह की होती है और एक्सेसिबिलिटी सभी तरह के विकलांग लोगों के लिए एक चुनौती है. उन्होंने कहा,
न्यूरोडायवर्जेंट कम्युनिटी में ऑटिस्टिक (Autistic) लोग भी शामिल हैं; क्या हम उनके अधिकारों की बात कर रहे हैं? क्या हम उनकी जरूरतों का ध्यान रख रहे हैं?
हालांकि, भारत में विकलांग व्यक्तियों की आबादी पर कोई हालिया अनुमान मौजूद नहीं है. लेकिन वर्ल्ड बैंक की 2009 की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में लगभग 80 मिलियन यानी करीब 8 करोड़ विकलांग लोग हो सकते हैं, जिनमें से कुछ उम्र या दुर्घटना की वजह से या किसी मेडिकल कंडीशन की वजह से विकलांग हो सकते हैं.
एक विकलांग व्यक्ति के तौर पर अपने अनुभव के बारे में बात करते हुए, निपुन मल्होत्रा (Nipun Malhotra) जो एक विकलांगता अधिकार वकालत संगठन, निपमैन फाउंडेशन के विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता और संस्थापक हैं, ने कहा,
जब भी मैं दिल्ली में कोई इम्पोर्टेंट मीटिंग करता हूं, तो मुझे टॉयलेट जाने के लिए अपने घर वापस पहुंचने तक का इंतजार करना पड़ता है क्योंकि मुझे कहीं भी विकलांगों के हिसाब से बनाया टॉयलेट (शौचालय) नहीं मिलता. ज्यादातर लोगों के लिए टॉयलेट जाना एक ऐसी चीज है जिसके बारे में उन्हें ज्यादा सोचना भी नहीं पड़ता है, लेकिन मेरे लिए यह एक बड़ी चुनौती जैसा है.
जन्म के समय, निपुन मल्होत्रा में आर्थ्रोग्रिपोसिस (Arthrogryposis) नाम की एक डिसेबिलिटी यानी विकलांगता डायग्नोस की गई थी. जिसका मतलब था कि उनकी बाहों और पैरों की मांसपेशियां अविकसित यानी अंडर डेवलप थीं और जीवन भर ऐसी ही रहने वाली थीं. उन्होंने इस बात को भी हाइलाइट किया कि कैसे हमारे समाज ने विकलांग लोगों (PwD) को रेफर यानी संदर्भित करने के लिए अलग-अलग शब्द बनाए हैं, लेकिन विकलांग लोगों इस सोसायटी में फिट करने के बारे में नहीं सोचा.
हमारे लिए दिव्यांग (Differently abled) और विशेष रूप से सक्षम (Specially abled) जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से समाज में विकलांगता से जुड़े जो वास्तविक मुद्दे हैं उन से ध्यान हट जाता है. हम अपने लिए और नाम नहीं चाहते हैं, हमें ज्यादा रैंप, लिफ्ट, डिजिटल एक्सेसिबिलिटी की जरूरत है. हमें और ज्यादा साइन लैंग्वेज इंटरप्रेटर (Interpreters) यानी दुभाषिए चाहिए; हमें और नाम दिए जाने से ज्यादा जरूरत इन चीजों की है.
निपुन मल्होत्रा, डॉ. सतेंद्र सिंह, विराली मोदी ने जो अपने निजी अनुभव साझा किए हैं वो दिव्यांग लोगों के लिए ज्यादा पहुंच और समावेशिता के बारे में बातचीत जारी रखने की आवश्यकता पर जोर देते हैं. क्योंकि उनके जीवन में हर दिन पेश आने वाली ये रुकावटें उनकी आजीविका और शिक्षा को प्रभावित करती है और इस वजह से एक अर्थव्यवस्था और एक समाज के तौर पर हम सभी को प्रभावित कर रही है.