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एक्सेसिबिलिटी, एजूकेशन और इम्प्लॉयमेंट, विकलांग लोगों के सामने आने वाली 3 प्रमुख चुनौतियां

चाहे स्कूल हो, वर्कप्लेस, मार्केट या पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर वहां पहुंचने में विकलांग लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. जिसकी वजह से वो उन अवसरों को खो देने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो देश के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से सुलभ होने चाहिए

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नई दिल्ली: रोज आने जाने में दिक्कतों का सामना, ऑफिस बिल्डिंग, स्कूल, कॉलेज, शौचालयों तक पहुंचने में कठिनाई, या ब्रेल (braille) में स्टडी मटेरियल की कमी – इन वजहों से दिव्‍यांग लोगों को वो अवसर नहीं मिल पाते, जो उनके लिए समान रूप से उपलब्ध होने चाहिए. दिव्‍यांग लोग (People with Disabilities – PwD) भारत में अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं या कहें कि उन्हें साइडलाइन कर दिया जाता है क्योंकि शहरों में अब भी हर जगह तक उनकी आसान पहुंच नहीं है. चाहे वह स्कूल हो, काम करने की जगह हो, मार्केट या पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर हों, वहां तक पहुंचने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. जिसकी वजह से वो उन अवसरों को खो देने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो देश के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से सुलभ होने चाहिए.

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दिव्‍यांगता अधिकार अधिवक्ता और तिरुवनंतपुरम में दृष्टिबाधित छात्रों के लिए एक मोबाइल स्कूल, ज्योतिर्गमय फाउंडेशन की संस्थापक, टिफनी बरार (Tiffany Brar), इस बात का उदाहरण है कि समाज दिव्‍यांग व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है. अपने स्कूल में एकमात्र दृष्टिबाधित छात्रा थीं और वो खुद को वहां अलग-थलग महसूस करती थीं, फैकल्टी मेंबर भी उनसे भेदभाव करते थे. लेकिन जिन मुश्किल हालातों का उन्होंने सामना किया वही उनके फाउंडेशन की स्थापना की प्रेरणा बना. स्कूल की खामियों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा,

“टॉयलेट तक पहुंचने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था. टॉयलेट गंदे रहते थे. और हमारा मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था. इसलिए, मुझे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.”

यूनेस्को की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 78.64 लाख बच्चे दिव्‍यांग हैं. दिव्‍यांग बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर 12 प्रतिशत तक है और करीब 27 प्रतिशत ने कभी किसी शैक्षणिक संस्थान में दाखिला नहीं लिया है. क्यों? क्योंकि स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर उन्हें ध्यान में रखकर खड़ा नहीं किया गया. टिफनी बरार की यात्रा इसका एक उदाहरण है.

नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट फॉर डिसेबल्ड पीपल (NCPEDP) के कार्यकारी निदेशक, अरमान अली ने बताया कि कैसे शिक्षित न हो पाने की वजह से दिव्‍यांग लोगों के लिए कई दूसरी चुनौतियां पैदा होती हैं. उन्होंने कहा,

“सैकड़ों और हजारों ऐसे उदाहरण हैं. जैसे ही लोग देखते हैं कि आपका बच्चा दिव्‍यांग है, तो दाखिला देने से इनकार कर दिया जाता है और जब आप शिक्षित नहीं होंगे, तो आपको नौकरी कहां से मिलेगी? आप मुख्यधारा के समाज का हिस्सा कैसे बनेंगे? आप शिक्षा, रोजगार, पारिवारिक या सामुदायिक जीवन का हिस्सा नहीं बन पाएंगे. इसे दूर करने का एकमात्र तरीका है एक्सेसिबिलिटी और एक्सेसिबिलिटी का मतलब सिर्फ रैंप बनाना नहीं है.”

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दिव्‍यांगता अधिकारों के समर्थक और निपमैन फाउंडेशन के संस्थापक, निपुण मल्होत्रा के लिए, मीटिंग के बीच टॉयलेट का इस्तेमाल करना दूसरे लोगों की तरह आसान नहीं था. इसके लिए उन्हें दो घंटे ड्राइव करके वापस घर जाना पड़ता था, क्योंकि किसी भी मीटिंग वेन्यू में दिव्‍यांग के अनुकूल शौचालय नहीं थे. आज वह एक फाउंडेशन चलाते हैं जो दिव्‍यांग लोगों (PwD) के लिए एक्सेसिबिलिटी सॉल्यूशन प्रोवाइड करती है, लेकिन उन्हें यहां तक पहुंचने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा.

अपने पूरे जीवन में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उनके बारे में बात करते हुए, निपुण मल्होत्रा ने कहा,

“इस तरह का भेदभाव होता रहा और मैंने जो देखा वह यह है कि जब भी मैं किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू में जाता था तो व्हीलचेयर यूजर के रूप में मेरी पहचान उस निपुण मल्होत्रा की पहचान पर भारी पड़ जाती थी, जिसने ये डिग्रियां हासिल की हैं और एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी में भी शानदार प्रदर्शन किया है. सारा फोकस मेरी व्हीलचेयर पर होता था.”

दिव्‍यांग लोगों के लिए नौकरी के अवसर के बारे में बात करते हुए अरमान अली ने कहा,

“अगर मैं एक कॉर्पोरेट हूं और दिव्‍यांग लोगों को काम पर रखना चाहता हूं तो इसमें क्या बुराई है. यदि दिव्‍यांग लोग आ सकते हैं और मेरे लिए काम कर सकते हैं, तो इसका मतलब वे मेरे रेवेन्यू में इजाफा कर रहे हैं, अपना समय बर्बाद नहीं कर रहे हैं; मैं उनको सैलरी दूंगा और वो काम करके मेरे प्रोफिट में इजाफा करेंगे. तो, आपको उन्हें काम पर रखने से कौन रोक रहा है?”

ग्लोबल डेटा से पता चलता है कि यदि दिव्‍यांग लोगों को शामिल किया जाए, तो वे GDP में 3 से 7 प्रतिशत का योगदान दे सकते हैं और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. सवाल यह है कि अगर वह इस वैल्यूएबल वर्कफोर्स और उनके अलग दृष्टिकोण को नजरअंदाज कर दें, तो क्या कोई देश विकास की राह पर आगे बढ़ सकता है?

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