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बौद्धिक व मानसिक दिव्यांगता वाले बच्चों को सशक्त बना रहा तमन्ना शिक्षा केंद्र
बौद्धिक दिव्यांग व्यक्तियों की पहुंच का सीमित होना आज भी उनके लिए एक चुनौती बनी हुई है, जिसका अहसास कम ही लोगों को है. एनडीटीवी ने बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों की ऐसी ही चुनौतियों, जरूरतों और उनके संभावित व्यावहारिक समाधानों को समझने के लिए नई दिल्ली के तमन्ना विशेष शिक्षा केंद्र का दौरा किया.
नई दिल्ली: रैंप या लिफ्ट न होना और दुर्गम दरवाजे या शौचालय जैसी पहुंच की बाधाएं शारीरिक दिव्यांगता वाले लोगों के लिए बाधक होती हैं, पर मानसिक या बौद्धिक दिव्यांगता वाले व्यक्तियों को इसके अलावा भी तमाम तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसके बारे में लोग कम ही जानते हैं.
बौद्धिक या मानसिक दिव्यांगता सामान्य कामकाज, सामाजिक कौशल और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं पैदा करती है. इसका मतलब यह है कि जिन कार्यों को साधारण व्यक्ति बहुत आसानी से कर लेते हैं, मामूली से कामों को कर पाना भी इन बच्चों के लिए एक काफी चुनौती भरा हो सकता है.
बौद्धिक रूप से अक्षम बच्ची देवांशी श्रीवास्तव की मां शालिनी शरद बताती हैं,
“शुरुआत में, हमें उसे दाल को ठीक से निकालना सिखाना पड़ा. अन्यथा, वह इसे बेतरतीब ढंग से फैला देती थी. हमने उसे चावल, दाल या दही को ठीक अनुपात में मिलाना भी सिखाया, ताकि वह खाना छोड़ न दे.”
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यहां तक कि दूसरों के लिए मामूली दिखने वाले छोटे-मोटे काम जैसे जूते के फीते बांधना, शर्ट के बटन लगाना, या पतलून या जींस की जिप लगाना इन बच्चों के लिए एक चुनौती सरीखे होते हैं, जिसके लिए बौद्धिक दिव्यांग व्यक्तियों और उनके माता-पिता दोनों को ही मेहनत करनी पड़ती है. नई दिल्ली में तमन्ना स्पेशल एजुकेशन सेंटर बौद्धिक रूप से अक्षम बच्चों को सब्जियां काटने और छीलने से लेकर तमाम तरह के छोटे-मोटे दैनिक काम करना सिखाता है और विशेष रूप से प्रशिक्षित थेरेपिस्ट इन बच्चों को जूते के फीते बांधना या शर्ट में पिन लगाना सिखाते हैं.
तमन्ना विशेष शिक्षा केंद्र के बच्चे बौद्धिक दिव्यांगता के विभिन्न स्तरों वाले हैं. उनकी सीखने की क्षमता के आधार पर उन्हें व्यावहारिक जीवन कौशल, बहु-संवेदी गतिविधियां सिखाते हुए शिक्षा दी जाती है.
बौद्धिक दिव्यांगता वाले लोगों को संवाद और दैनिक कामकाज तक करने में कठिनाई होती है. घरों, परिवहन और सार्वजनिक स्थानों में बेहतर पहुंच, सार्वभौमिक चित्रलेखों (यूनिवर्सल पिक्टोग्राम्स), स्पष्ट संकेतों और रेलिंग के साथ सुरक्षित, फिसलन रहित, अच्छी रोशनी वाली सीढ़ियों जैसे समाधानों के जरिये इनकी पहुंच को बढ़ाया जा सकता है.
नई दिल्ली के तमन्ना स्पेशल एजुकेशन सेंटर की वाइस प्रिंसिपल प्रभा ने कहा,
“उदाहरण के लिए, यदि कोई बच्चा कपड़े पहनना या अपने दांत ब्रश करना या अपना चेहरा धोना नहीं जानता है, तो हम शब्दों और चित्रों वाले फंक्शनल कार्डों के जरिये उन्हें यह करना सिखाते हैं. इसी तरह इन बच्चों को पुरुष या महिला शौचालय की पहचान समझाने के लिए हम उन्हें (साइट वर्ड्स) दृष्टि शब्द सिखाते हैं. इसमें हम उन्हें चित्र के साथ शब्द दिखाते हैं, फिर हम धीरे-धीरे चित्र हटा देते हैं और बच्चे के सीखने के लिए केवल शब्द छोड़ देते हैं.”
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पहुंच और समावेशन केवल इमारतों या सेवाओं तक भौतिक पहुंच की ही बात नहीं है. बेहतर एक्सेस के लिए जागरूकता और लोगों में सहयोग की भावना होना भी महत्वपूर्ण है. 60 साल की महिला आशा भटनागर अपनी भतीजी रूही को रोजाना स्कूल लाती हैं. वह कहती हैं कि उनकी भतीजी और बौद्धिक दिव्यांगता वाले अन्य लोगों के सामने सबसे बड़ी बाधा समाज में स्वीकार्यता की कमी है.
बौद्धिक रूप से अक्षम बच्ची रूही की चाची आशा भटनागर ने कहा,
“उसे इकोलिया है, इसलिए वह चीजों को दोहराती है. अगर उसे कोई बात पसंद आती है तो वह उसे बार-बार दोहराती है. लोग मुझसे कहते थे कि मैं उसे सैर पर न ले जाऊं. मैंने पूछा क्यों नहीं? आखिर, वॉकिंग स्पेस उसका भी तो आपके जितना ही अधिकार है.”
वक्त की पुकार है कि इन बाधाओं को तोड़ा जाए और बौद्धिक या मानसिक दिव्यांगता वाले लोगों के लिए अधिक एक्सेस को बढ़ाया जाए, जिसके लिए बाधाओं और संकीर्णता भरी धारणा को खत्म करना जरूरी है.
क्योंकि अगर हम उन्हें अपने बीच देखेंगे ही नहीं, तो भला स्वीकार कैसे करेंगे? और इसके लिए हमें अपने बीच उनकी जगह बनानी होगी.
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